कावड़ यात्रा (mahakal ki kahani):
महाकाल (mahakal) के भक्तों में कावड़ यात्रा (Kavad Yatra) का विशेष महत्व है| हर साल श्रावण मास में, असंख्य कांवडिये धार्मिक स्थलों से, गंगा जल से भरी कांवड़ लेकर, पदयात्रा करके अपने गांव वापस लौटते हैं| इसी सफ़र को कावड़ यात्रा (Kavad Yatra) बोला जाता है| ऐसे ही महाकाल (mahakal) के एक भक्त, भोलाराम ने सावन माह के प्रथम सप्ताह, हरिद्वार से जल लेकर बाबा विश्वनाथ वाराणसी की तरफ़, पैदल यात्रा प्रारंभ करने का प्रण किया| यह कावड़ यात्रा (Kavad Yatra) आज तक की सबसे लंबी दूरी की यात्रा बनने वाली थी| भोलाराम के इस ऐलान से, आस पास के गाँव में खलबली मच गई, क्योंकि भोलाराम शारीरिक तौर पर ज़्यादा मज़बूत नहीं था, लेकिन फिर भी उसने इतना बड़ा संकल्प कर लिया था कि, जहाँ बड़े बड़े भक्त घुटने टेक दें| भोलाराम के परिवार वाले, उसे समझाने की बहुत कोशिश करते हैं, लेकिन भोलाराम का संकल्प अटूट था| उसने ठान लिया था कि, अब उसका कोई साथ दें, या ना दे, वह कावड़ लेकर, अकेला ही जाएगा| भोलाराम की कांवड़ सजाने के लिए, कई गाँवों के लोग, उपस्थित हुए थे| सभी भोलाराम का उत्साह बढ़ाते हैं, हालाँकि भोलाराम को, अपने महाकाल पर पूर्ण विश्वास था, इसलिए वह, इस कबाड़ यात्रा के संकल्प को, छोटा ही समझ रहा था| दरअसल वह पहली बार, महाकाल की कावड़ यात्रा में हिस्सा लेने जा रहा था और उसे अंदाज़ा भी नहीं था कि, इस सफ़र में कितनी परेशानियां होने वाली है| भोलाराम अगली सुबह, अपनी कावड़ यात्रा अकेले ही प्रारंभ करता है| आस पास के गाँव से, कई भक्त भोलाराम को देखने पहुंचे थे,लेकिन कोई उसके साथ यात्रा में जाने को तैयार नहीं था,क्योंकि सभी भोलाराम के संकल्प की कठिनाई को,भली भाँति समझ रहे थे|भोलाराम धीरे धीरे क़दम बढ़ाने लगता है|भोलाराम की कांवड़ का वज़न,लगभग 70 किलो था जो कि,उसके शारीरिक वज़न से 10 किलो अधिक था|भोलाराम कुछ ही दूर आया था कि,महाकाल उसकी परीक्षा लेना शुरू कर देते हैं|भोलाराम की कांवड़ से पानी टपकने लगता है|भोलाराम पानी की मटकियों को चेक करता है तो,उसे एक मटकी में छोटा सा छेद दिखाई देता है|भोलाराम मटकी का छेद बंद करने की बहुत कोशिश करता है,लेकिन उसके पास ऐसी कोई वस्तु नहीं होती,जिससे पानी की धार रोकी जा सके|वह महाकाल का नाम लेकर,आगे बढ़ने लगता है|अचानक उसे रास्ते में,एक मज़दूर दिखाई देता है जो,रोड बनाने के काम में लगा हुआ था और वह आग के पास खड़ा होकर,डामर गर्म कर रहा था|भोलाराम को तुरंत तरकीब सूझी| वह मज़दूर के पास जाकर, थोड़ा सा डामर लेकर, मटकी के छेद में लगा देता है और डामर लगते ही, पानी टपकना बंद हो जाता है| भोलाराम मज़दूर को धन्यवाद देते हुए, आगे बढ़ जाता है| समस्या का समाधान होते ही, भोलाराम का उत्साह दोगुना हो गया था और उसकी यात्रा की गति बढ़ चुकी थी|
चार घंटों की यात्रा होते ही, भोलाराम बहुत थक जाता है और रोड के किनारे, एक पेड़ के पास बैठ जाता है| भोलाराम अपने साथ कुछ खाने पीने की सामग्री रखकर लाया था, जिसे निकाल कर वह खाने लगता है| खाना खाने के बाद, भोलाराम को नींद आ जाती है और वह पेड़ से टिक कर सो जाता है| उसी सड़क से दो राहगीर गुज़र रहे होते हैं, अचानक उनकी नज़र भोलाराम पर पड़ती है| वह पेड़ से टिका हुआ, सो रहा होता है और उसके बग़ल में, एक थैला और कांवड़ रखी होती है| ये दोनों राहगीर आदतन अपराधी थे| भोलाराम का थैला चोरी करने के विचार से दोनों उसकी तरफ़ बढ़ने लगते हैं| भोलाराम के थैले में कुछ पैसे और उसके यात्रा में उपयोग होने वाली ज़रूरी वस्तुएँ रखी हुई थी| दोनों राहगीर, जैसे ही भोलाराम का थैला उठाते हैं| दहशत से उनके पाँव काँपने लगते हैं, क्योंकि थैला उठाते ही, भोलाराम के सर के ऊपर, एक बहुत विशाल साँप, फ़न फैलाए खड़ा हो जाता है| साँप को देखते ही, थैला छोड़कर दोनों दुम दबाकर भाग जाते हैं| भोलाराम को सोते हुए, पूरी रात गुज़र जाती है| उसे इस घटना की भनक तक नहीं लगती और जैसे ही वह सुबह उठकर देखता है कि, उसका थैला थोड़ा, दूर पड़ा हुआ है, उसे समझ में आ जाता है कि, किसी ने चोरी करने की कोशिश की थी| लेकिन उसे ताज्जुब होता है कि, चोरो ने थैला छोड़ क्यों दिया था| भोलाराम तुरंत थैले में, अपना सामान देखता है| उसे सभी चीज़ें व्यवस्थित मिलती है| वह अपनी नित्यक्रिया करके, कावड़ यात्रा पुनः प्रारम्भ कर देता है| भोलाराम को महाकाल की यात्रा में आनंद आने लगा था| भोलाराम को रास्ते में कांवड़ ले जाते देख, कई श्रद्धालु खाने पीने की वस्तुएँ और पैसे, उसे भेंट करते हैं| भोलाराम को सफ़र करते हुए, आठ दिन गुज़र चुके थे और अभी तक, उसने आधा ही सफ़र तय किया था| रास्ते भर बारिश की बूंदें, भोलाराम को थकान का एहसास नहीं होने दे रही थी| अभी तक तो भोलाराम को सफ़र में, किसी ख़ास परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा था, लेकिन अब उलझना बढ़ने वाली थी, क्योंकि बारिश तेज़ होने लगी थी| नदियों का जलस्तर बढ़ रहा था और अभी भोलाराम को, रास्ते में कई नदी नाले पार करने थे| भोलाराम शारीरिक दुर्बल ज़रूर था, लेकिन उसके हौसले बुलंद होते है| महाकाल की भक्ति ने उसे, ऐसा साहस दिया था कि, वह अपनी कावड़ यात्रा को बिना रोके, आगे बढ़ता जा रहा था| अचानक भोलाराम को, लोगों की भीड़, दिखाई पड़ती है| वह पास जाकर देखता है तो, हैरान हो जाता है, क्योंकि नदी का पुल टूट चुका होता है और आगे जाने के लिए, यही एक रास्ता था और जब तक नदी का पानी, सामान्य स्तर में नहीं आ जाता, तब तक यहाँ से पार करना नामुमकिन था| भोलाराम कांवड़ लेकर सड़क पर ही बैठ जाता है और पानी नीचे उतरने का, इंतज़ार करने लगता है| उसे बैठे चार घंटे ही हुए थे कि, अचानक एक एम्बुलेंस आकर खड़ी हो जाती है| एम्बुलेंस के अंदर मंत्री को ले जाया जा रहा था, लेकिन पुल टूटने की वजह से, एम्बुलेंस को रुकना पड़ता है, लेकिन जैसे ही मंत्री के क़ाफ़िले को, पुल टूटने की ख़बर मिलती है तो, वह मंत्री जी के लिए, हेलिकॉप्टर भेज देते हैं|
हेलीकॉप्टर पहुँचते ही, मंत्री जी के साथ साथ, वहाँ बैठे लोगों को भी, नदी के उस पार जाने का मौक़ा मिल जाता है और उन्हीं लोगों के बीच में, भोलाराम भी अपनी कावड़ लेकर, हेलीकॉप्टर में बैठ जाता है और नदी पार कर लेता है| भोलाराम महाकाल को मन ही मन प्रणाम करता है और अपना सफ़र जारी कर देता है| कुछ दूर आगे आने के बाद, भोलाराम को एक गाँव के किनारे, पहाड़ी के ऊपर, छोटा सा मंदिर दिखाई देता है| भोलाराम को अचानक उस मंदिर में जाने का विचार आता है| वह अपनी कावड़ लेकर, मंदिर की तरफ़ जाने लगता है| मंदिर थोड़ा ऊँचाई पर था| उसे ऊपर चढ़ने में परेशानी हो रही थी, लेकिन भोलाराम पेड़ की शाखाएँ, पकड़कर मंदिर के द्वार तक, पहुँच जाता है और अपनी कावड़ को, मंदिर के बाहर रखकर, अंदर प्रवेश कर जाता है| अंदर पहुँचते ही, उसे एक साधु ध्यान में बैठे हुए दिखाई देते हैं| भोलाराम की आहट से, उनकी आंखें खुल जाती है| वह भोलाराम को, उसके नाम से बुलाते हुए कहते हैं कि, “भोलाराम लाओ पानी मुझे दे दो| मुझे बहुत प्यास लगी है”| भोलाराम को ताज्जुब होता है कि, साधु यह कैसे जानते हैं कि, मैं मटकी में जल लाया हूँ| भोलाराम तुरंत साधु के सामने, हाथ जोड़कर खड़ा हो जाता है और कहता है, “बाबा आप तो अंतर्यामी प्रतीत हो रहे हैं| आप तो सब जानते हैं कि, मैं कावड़ के लिए, पवित्र जल ले जा रहा हूँ, जिसे मैं अपने महाकाल को अर्पित करूँगा और अगर मैंने यह, आपको दे दिया तो, मेरे पास वहाँ ले जाने के लिए, कुछ नहीं बचेगा और वैसे भी, रास्ते में बहुत सारा जल, गिर चुका है| मैं क्षमा चाहूँगा| मैं आपको जल नहीं दे सकता” और इतना कह कर भोलाराम, मंदिर से बाहर आ जाता है और अपना कावड़ लेकर, पहाड़ से नीचे उतर आता है| भोलाराम कच्चे रास्ते से आगे बढ़ने लगता है| थोड़ी ही दूर, उसे एक गाँव दिखाई देता है और जैसे ही वह गाँव के क़रीब पहुँचता है| वहाँ कुछ लोग बैठे होते हैं| सभी भोलाराम को कांवड़ ले जाते देख, उसके पास पहुँच जाते हैं| गाँव के लोग भोलाराम को खाने पीने की वस्तु भेंट करने के लिए आगे आते हैं, लेकिन भोलाराम उन्हें रोक देता है और कहता है, “अगर आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो, पीछे पहाड़ी पर, एक मंदिर है, वहाँ एक साधू भूखे प्यासे बैठे हैं| कृपया करके, उन्हें यह सब भिजवा दीजिए”| गाँव के लोग भोलाराम को आश्चर्यचकित होकर देखने लगते हैं और कहते हैं, “भैया यहाँ तो कोई पहाड़ी नहीं हैं| ये पूरा इलाक़ा जंगली है और यहाँ पेड़ पौधों के अलावा, आपको कुछ दिखाई नहीं देगा| ज़रूर आपको कोई भ्रम हुआ होगा”| भोलाराम सोच में पड़ जाता है और कुछ देर के बाद, वह कहता है कि, “मैं दावे के साथ कह सकता हूँ, यहाँ पहाड़ी में एक मंदिर है| आप सभी मेरे साथ चलिए| मैं आपको दिखाता हूँ” और भोलाराम सभी को लेकर, पहाड़ी को खोजते हुए चलने लगता है, लेकिन उसे कुछ दूर आते ही, एहसास होने लगता है कि, वह ग़लत रास्ते जा रहा है क्योंकि, काफ़ी देर तक चलते हुए, उसे पहाड़ी दिखाई नहीं दे रही थी और यह रास्ता भी, उसके लिए अनजाना सा लग रहा था| वह गाँव वालों से तुरंत कहता है कि, “आपके गाँव आने का इसके अलावा कोई और रास्ता है क्या”? गाँव वाले मना कर देते हैं और भोलाराम को समझाते हैं कि, “आप भ्रमित न हों| यहाँ कोई मंदिर नहीं है और न ही कोई साधू भूखा प्यासा बैठा है| आप अपनी कावड़ यात्रा पुनः प्रारंभ करें| अभी आपका सफ़र लंबा है”| भोलाराम वही घुटने के बल बैठ जाता है और हाथ जोड़कर महाकाल का आह्वान करके, ज़ोर ज़ोर से रोने लगता है और रोते हुए कहता है, “महाकाल मैं आपको पहचान नहीं पाया| कृपया मुझे दर्शन दीजिए| मैं जानता हूँ, साधु के भेष में, आप ही थे| मैं आपके लिए जल लाया हूँ और मैं आपको, जल पिलाए बिना यहाँ से नहीं जाऊँगा” और कुछ ही देर में, भोलाराम के सामने, से बड़े बड़े पेड़ों के पीछे अचानक पहाड़ी में मंदिर नज़र आने लगता है|
गांवों के सभी लोग मंदिर को देखकर दंग रह जाते हैं| मंदिर दिखते ही भोलाराम, कावड़ लेकर दौड़ पड़ता है और दोबारा उसी मंदिर में प्रवेश कर जाता है| गाँव के लोग पहाड़ी के नीचे खड़े होकर, महाकाल की महिमा देख रहे होते हैं| मंदिर रहस्यमयी था, जिसे आज से पहले किसी ने नहीं देखा था| भोलाराम मंदिर के अंदर पहुँचते ही, साधु के सामने अपनी कावड़ रख देता है| साधु भोलाराम से कहते हैं, “मेरे मस्तक में जल डालो” और जैसे ही, भोलाराम मटकी से, साधु के सर में जल डालता है, अचानक उसके सामने, का नज़ारा बदल जाता है और वह वाराणसी की, गंगा नदी के किनारे पहुँच चुका होता है| उसे कुछ समझ में नहीं आता, क्योंकि अभी यहाँ तक पहुँचने के लिए, उसे पाँच दिन का सफ़र और करना था, लेकिन यह सफ़र पलक छपकते ही पूरा हो चुका था| महाकाल की महिमा को वह समझ चुका था| भोलाराम की आँखों में आँसू आ जाते हैं और वह गंगा नदी के किनारे, महाकाल के ध्यान में बैठ जाता है| भोलाराम की कावड़ यात्रा स्वयं महाकाल ने सम्पन्न की थी जिससे भोलाराम का जीवन धन्य हो गया था और उसकी कावड़ यात्रा पूरी होते ही, महाकाल की कहानी (mahakal ki kahani) गाथा समाप्त हो जाती है|
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